Sunday, December 16, 2012

जन्माष्टमी : पर्व या व्यवसाय

यूँ  तो कहने  के  लिए  कृष्ण-कन्हैया  का  जन्म  मथुरा  में  हुआ, उनकी  बाल  लीलाएँ गोकुल  में  हुई, रास-लीला  वृन्दावन  में  और  अंत  में  पूरे  गोकुल  वासियों  को  लेकर  बसे  द्वारका  में. तो  आखिर  महाराष्ट्र  में  मटकी  फोड़ने  की  प्रथा  कैसे?

विष्णु  के  आठवें   अवतार  श्री  कृष्ण  के  जन्मदिवस  को  जन्माष्टमी  पर्व  के  नाम  से  जाना  जाता  है. इस  त्यौहार  के  और  भी  कई  नाम  हैं  जैसे  कृष्णाष्टमी, सातम  आठम, गोकुलाष्टमी, अष्टमी  रोहिणी, श्रीकृष्ण  जयंती, श्री  जयंती  और  कृष्ण  जन्माष्टमी. हिन्दू  कैलेंडर  के  मुताबिक  भाद्र महीने  (August-September) की  अमावस्या  के  आठवें दिन  ये  पर्व  धूम-धाम  से  देश  के  अलग  अलग  हिस्सों  में  मनाया  जाता  है.

पर  वो  तीन  राज्य  जो  गोकुलाष्टमी  के  लिए  बहुत  प्रसिद्ध  हैं, वो  हैं  उत्तर  प्रदेश, गुजरात  और  महाराष्ट्र. उत्तर  प्रदेश  में  प्रसिद्ध  होना  लाजमी  है, आखिर  वहीँ  के  शहरों  में  उनका  जन्म  हुआ, बचपन  बिता, राधारानी  से  प्रेम  हुआ, तरह-तरह  की  लीलाएँ  की, अपने  क्रूर  मामा  कंस  का  वध  किया, यहाँ  तक  की  माखन, दूध  से  भरी  मटकियाँ  भी  वहीँ  की  गलियों  में  फोड़ी. गुजरात  के  द्वारका  शहर  में  भी  ये  पर्व  प्रचिलित  है  क्योंकि  यहाँ  भी  कान्हा  जी  का  वास  था.

फिर, दूध, माखन, दही  से  भरी  मटकी  आखिर  महाराष्ट्र  के  मुंबई  और  पुणे  शहर में  कैसे  पहुंची? क्यों छोटे -बड़े  “गोविंदा” अपनी  जान  जोखिम में  डाल  कर  मानव  pyramid बनाते हुए  ये  त्यौहार  मानते  हैं?.

ये  प्रथा  अठारहवीं सदी  में  उस  समय  कहे  जानेवाले  बम्बई  के  गिरगाँव इलाके  में  “पठारे  प्रभु”  कम्युनिटी  ने  शुरू  की  थी. ये  बहुत  ही  समृद्ध  कम्युनिटी  थी  जिनके  नीचे कई  किसान  काम  किया  करते  थे . ये  किसान  “कुनबी”  कम्युनिटी  के थे. पठारे प्रभु,  श्री कृष्ण के  भक्त  थे  इसीलिए जन्माष्टमी  के  दिन  दोनों  कम्युनिटी  मिलकर मानव  pyramid बनाते  थे  और  ऊंचाई  पर  टंगी  दूध,  माखन  से   भरी   मिट्टी  से बनी  मटकी  को तोड़ते थे.  ये  pyramid  बनाते  वक़्त  कोई  ऊँच-नीच  नहीं  देखी जाती  थी.  हर  कोई  पूरी  श्रधा से  बिना  मन  में  लालच  लिए  ये  त्यौहार  मनाते  थे. और  साथ  ही  टाँगे   पर  श्री कृष्ण  की  मूर्ति  बिठा  कर  और  कृष्ण  की  झाकियां लगा  कर  पूरे  इलाके  में  घुमाते थे.  

ये  प्रथा 1950s से  चलती  रही  फिर  गिरगाँव, गाँव  से  शहर  बन  गया  और  बड़ी  मीनें  खत्म  हो  गईं.  फिर  वहां  के  निवासी  मुंबई  शहर  के  अलग  अलग  हिस्सों  में  बस  गए  लेकिन  जहाँ  बसे  वहीँ  ये  प्रथा  शुरू  करा  दी.  पर  अब  ये  पर्व  मनाने  में  फ़र्क  आया  है. अब  टांगो  में  झांकियों  की  जगह  ट्रक  भर  कर  गोविंदा  घूमते  हैं. 

और  धीरे  धीरे  ये  पर्व  अब  एक  स्पर्धा  के  रूप  में  देखा  जाने  लगा  है.  ये  पैसे  कमाने  का  एक  ज़रिया  बन  गया  है.  और  इस  बदलाव  का  एक  मुख्य  कारण  है  बड़े  व्यवसाइयों  और  राजनेताओं  द्वारा  मटकी  तोड़ने  पर  लाखों  का  इनाम  देना.  इसके  चलते  ये  बाल-गोपाल  और  गोविंदा  कई  महीनों  से  इसकी तयारी  में  जुट  जाते  हैं.  ज्यादा  से  ज्यादा  मटकी  तोड़ने  और  ज्यादा  कमाने  की  चाह  में कभी  कभी मानवता  कहीं  खो  जाती  है  और  हर  साल  इस  पर्व  के  दौरान  2-4 लोगों  की  मौत की खबर  सुनने  में  आ  ही  जाती  है.  राजनेता  अपना  उल्लू साधने  में  कई  मासूमों  की  जान  जोखिम  में डालते  हैं.  आज  ये  स्पर्धा  इस  कदर  बढ  गई  है  कि  सिर्फ  मुंबई  में  लगभग  4000  मटकियों  को तोड़ने  के  लिए  करीब  2000 गोविंदा  मंडलियाँ  हैं.  पहले  सिर्फ  पुरुष  ही इसमें  हिस्सा लेते  थे,  लेकिन  अब  महिलाएं  और  नेत्र-हीन भी इस "व्यवसाय" में कूद पड़े हैं.
 
इससे  ये  तो  पता  चलता  है  कि  स्पर्धा  काफी कड़ी  है  लेकिन  एक  सवाल जो  उठता  है वो  ये  कि  इस हर्सौल्लास के त्यौहार  को  एक  त्यौहार  के  रूप  में  ही देखना  चाहिए  या  एक स्पर्धा  और व्यावसायिक  रूप  में  देखना  चाहिए?

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