Tuesday, July 30, 2013

ऊपर आका नीचे काका

प्रस्तावना:

जतिन खन्ना, जो दुनिया भर में राजेश खन्ना के नाम से मशहूर हुए, का जन्म अमृतसर,

पंजाब में २९ दिसंबर, सन १९४२ में हुआ था. कहने को तो उनका नाम राजेश खन्ना था पर

दोस्त, रिश्तेदार और उनके हज़ारों चाहने वाले उन्हें कई नाम से पुकारा करते थे जैसे कि

काका, आर. के. या रोमांस के बादशाह. उन्हें भारतीय सिनेमा का सुपरस्टार भी कहते हैं. लोगो

का तो यहाँ तक कहना है कि "सुपरस्टार" शब्द का इज़ाद ही राजेश खन्ना के लिए किया गया

था. काका ने भारतीय सिनेमा में पहला कदम लीग से हटकर बनी फिल्म "आखिरी ख़त" से की

थी. इसमें उन्होंने इन्द्राणी मुख़र्जी के साथ काम किया था और यह फिल्म खूब चली थी.

और फिर शायद ही उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा होगा.


शुरूआती ज़िन्दगी:

राजेश खन्ना के माता-पिता उनके असली माता-पिता नहीं थे. वो काका के रिश्तेदार थे और

उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी. इसी कारण उन्होंने काका को उनके असली माता-पिता से

गोद लिया था. जब खन्ना ने फ़िल्मी दुनिया में आने का फैसला किया तो उनके पिता ने उन्हें

अपना अपना नाम जतिन से राजेश करने की सलाह दी. उनका मानना था कि 'जतिन' नाम

फ़िल्मी जगत के लिए सही नाम नहीं है.. वो अपने परिवार के साथ मुंबई के गिरगांव के करीब

ठाकुरद्वार में रहते थे. उनकी स्कूली शिक्षा गिरगांव के सैंट सबास्तियन स्कूल में हुई. वहीँ

उनकी मित्रता रवि कपूर से हुई जो बाद में जितेन्द्र  के नाम से मशहूर हुए. राजेश खन्ना

को शुरू से ही थिएटर में दिलचस्पी रही थी. इसी के चलते उन्होंने स्कूल और कालेज में कई

स्टेज शो किये. उन्होंने बहुत सी प्रतियोगिताओं में पुरस्कार भी प्राप्त किये. एक बार फिर

खन्ना और जितेन्द्र ने एक साथ किशिन्चंद चेलाराम कालेज में पढ़ाई की. कहा जाता है कि

जब जितेन्द्र ने फिल्मों में आने का फैसला किया तो खन्ना ने ही उन्हें आडिशन की तयारी

कराई थी. बाद में दोनों ने निशान (1983), मकसद (1984) फिल्मों में साथ में काम भी किया

था. 1960 की शुरुआत में थियेटर व फिल्मों में काम की तलाश में राजेश खन्ना उस समय भी

अपनी स्पोर्टस कार में जाया करते थे.

अंजू महेन्द्रू, राजेश खन्ना का पहला प्यार रही हैं. दोनों ही एक दूसरे से बहुत प्यार करते

थे. उनका रिश्ता १९६६-१९७२ तक चला. जब खन्ना ने अंजू के सामने शादी का प्रस्ताव

रखा तो उन्होंने मना कर दिया और उन दोनों का सात साल पुराना रिश्ता १९७२ में टूट गया.

इससे खन्ना को बहुत बड़ा धक्का लगा था लेकिन फिर उन्होंने मार्च १९७३ में डिम्पल

कपाडिया से शादी कर ली थी. इसके कुछ महीने बाद डिम्पल कपाडिया की राज कपूर द्वारा

निर्देशित "बोबी" फिल्म सिनेमाघरों में आई. ये डिम्पल की पहली फिल्म थी.


फ़िल्मी करियर:

- शुरुआती फ़िल्मी करियर (१९६५-१९७५) 1965-1975 

सन १९६५ में युनाइटेड प्रोड्यूसर और फिल्मफैअर द्वारा आयोजित आल इंडिया टेलेंट कांटेस्ट

में खन्ना ने हजारो प्रतियोगियों को पीछे छोड़ कर टॉप ८ में जगह बनाई और फिर इस

प्रतियोगिता के विजेता भी बने. इनाम के तौर पर उन्हें दो फिल्मों में अभिनय करने का मौका

मिला. उनकी पहली फिल्म थी "आखिरी ख़त" जो की चेतन आनंद ने निर्देशित की थी और

दूसरी फिल्म थी रविन्द्र दवे द्वारा निर्देशित "राज़". आखिरी ख़त को सन १९६७ में भारत की

ओर से ४०वे आस्कर अकेडमी पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए भेजा गया

था. प्रतियोगिता जितने के बाद राजेश खन्ना को सबसे पहले ज़ी. पी. सिप्पी और नासिर हुसैन

ने अपनी फिल्मों के लिए साइन किया था. खन्ना ने युनाइटेड प्रोड्यूसर के तले कई फ़िल्में

की जैसे औरत, इत्तेफाक और डोली. राजेश खन्ना ने 1965-1975 के दौरान कई सुपरहिट

फ़िल्में की जैसे सच्चा झूठा (1970), आन मिलो सजना (1970), हाथी मेरे साथी (1971),

छोटी बहु (1971), अपना देश (1972), अमर प्रेम (1972), नमक हराम (1973), आपकी

कसम (1974), रोटी (1974), बहारों के सपने (1967), आराधना (1969), कटी पतंग (1970)

आदि.

राजेश खन्ना ने 1966-1975 में बहुत सारी अभिनेत्रियों के साथ काम किया था, जैसे शर्मिला

टैगोर, फरीदा जलाल, मुमताज़, आशा पारेख, और जीनत अमान. मुमताज़ उनकी पड़ोसिन थी,

इसी के चलते दोनों की आन-स्क्रीन केमिस्ट्री बहुत अच्छी थी. दोनों ने साथ में आठ फिल्में

की थी और सारी की सारी सुपरहिट रही थी जो की अपने आप में एक रिकॉर्ड है. राजेश खन्ना

की शादी के बाद मुमताज़ ने फ़िल्में छोड़ने का फैसला किया और अरबपति मयूर मधवानी से

१९७४ में शादी कर ली.

राजेश खन्ना ने ६६-७५ के बीच लगभग ३५ गोल्डेन जुबली फिल्में दी थी. मतलब उनकी

एक-एक फिल्म सिनेमा घरों मैं ५० हफ्तों से भी ज्यादा चलती थी. इसी दौरान १९६९-७२ में

लगातार अकेले हीरो वाली १५ सुपरहिट फिल्में दी थी, जो एक अनुठा रिकॉर्ड है और आज तक

कोई इसे तोड़ नहीं पाया है.

- १९७६-१९७८ (1976-1978)

यह समय ऐसा था जब ऐक्शन फिल्में ने कदम बढाया और मल्टी स्टारर फिल्मों का चलन

शुरू हुआ. बहुत सी सामाजिक मुददों को उठाती फिल्में भी बनी. इसी समय "आपातकालीन

समय" भी घोषित हो गया तो लोगो में रिवोल्ट की भावना जगी और लोग इसी मुददे पर बनी

फिल्मों को तवज्जो देने लगे. इसीलिए यह समय राजेश खन्ना के लिए कुछ खास अच्छा

साबित नहीं हुआ. इस दौरान उनकी अधिकतर फ़िल्में सिनेमा घरों में नहीं चली. उनमें से कुछ

थी ऋषिकेश मुख़र्जी की ‘नौकरी’, शक्ति सामंत की ‘महबूबा’, दीन दयाल शर्मा की ‘त्याग’,

मीराज की ‘पलकों की छॉव में’ और महमूद अली की ‘जनता हवालदार’. भले ही ये फिल्में

बाक्स आफिस पर अपना कमाल नहीं दिखा पाई हो लेकिन क्रिटिक्स ने खन्ना की पर्फोर्मांस

को खूब सहारा था. इस दौरान उन्होंने ४ हिट फ़िल्में भी दी थी- महा चोर, अनुरोध (1977),

करम (1977) और छैला बाबु (1977).

- १९७९-१९९० (1979-1990)

फिर आई 1979 में फिल्म अमरदीप, जिसमें राजेश खन्ना के साथ शबाना आज़मी थी. और

यही फिल्म से एक बार फिर शुरू हुई काका की कामयाबी की नई दास्तान. इस नए दौर में

उनकी कई हिट फिल्में आई जैसे फिर वो रात, थोड़ी सी बेवफाई, दर्द, धनवान, अगर तुम न

होते, अधिकार, सौतन, अनोखा रिश्ता, आशा ज्योती, नया कदम, आज का एम.एल.ए राम

अवतार, आवाम, इन्साफ मैं करूँगा इत्यादि.

अस्सी के दशक में उन्होंने कई और अभिनेत्रियों के साथ सुपरहिट फिल्मों में काम किया

जिनमें हेमा मालिनी, टीना मुनीम, शबाना आज़मी, पूनम ढिल्लों, स्मिता पाटिल, पदमिनी

कोल्हापुरी जैसे नाम शामिल हैं. इस समय टीना मुनीम और राजेश खन्ना की जोड़ी सुपरहिट

हो गई थी. ये ऑन स्क्रीन जोड़ी, ऑफ स्क्रीन भी दिखाई देने लगी थी. इस जोड़ी ने बेवफाई

(1980), सौतन (1983), इन्साफ मैं करूँगा, अधिकार (1986), सुराग, आखिर क्यूँ जैसी

सुपरहिट फिल्में की थी. उन्होंने सन १९८१ में एक मराठी फिल्म "सुंदर सातरकर" में भी काम

किया था.

जहाँ एक तरफ कई अभिनेता मल्टी-स्टारर फ़िल्में करके लोगों में अपनी पहचान बनाना चाह

रहे थे वही दूसरी और खन्ना ने सबसे कम मल्टी-स्टारर फ़िल्में करने के बादजूद लोगों के बीच

अपनी छाप छोड़ रखी थी. उनकी मल्टी-स्टारर फिल्मों की कामयाबी की दास्ताँ में ज़माना, घर

का चिराग, पापी पेट का सवाल है, धर्म और कानून जैसी फिल्मों का जुड़ गया है.

सन १९८५ में एक समय ऐसा आया था जब राजेश खन्ना की कुल १३ फिल्में रिलीज़ हुई थी,

जिसमें से ११ में उनके लीड रोले था और २ में स्पेशल appearance. उन ११ फिल्मों में से ८

सुपरहिट फिल्में हुई थी. इसी साल राजेश खन्ना ने "अलग अलग" को प्रड्यूस करके प्रोड्यूसर

के तौर पर सिनेमा जगत में कदम रखा. उन्होंने "अलग अलग" के अलावा कई फिल्में का

निर्देशन किया था जैसे रोटी, जय शिव शंकर वगरह.

फिल्मों से समाये निकलते हुए और १९९१ में राजनीति से जुड़ते समय उनकी कुछ एक आखिरी

लीड में से एक थी डेविड धवन द्वारा निर्देशित "स्वर्ग" जो कि १९९० में आई थी. यह दौर

ऐसा था जब अमिताभ बच्चन ने सिनेमा जगत में "एंग्री यंग मैन" का टाईटल लेकर सीढ़ी

चादनी शुरू कर दी थी. इसी के चलते राजेश खन्ना को "सुपरस्टार" का ख़िताब अमिताभ

बच्चन के साथ बांटना पड़ा. इस समय दोनों ही सबसे ज्यादा फीस लेने वाले अभिनेता थे और

दोनों ही सुपरहिट फ़िल्में दे रहे थे. फिर सन १९७१ में फिल्म आई हृषिकेश मुख़र्जी द्वारा

निर्देशत "आनंद". दोनों टॉप के अभिनेता इस फिल्म में थे. इसमें खन्ना मुख्य भूमिका में

थे जिसे कैंसर है लेकिन फिर भी वो बड़ा खुशमिजाज है क्योंकिवो ज़िन्दगी पूरी तरह से जीने

में विश्वास रखता है. अमिताभ इसमें उनके डॉक्टर और दोस्त का किरदार निभा रहे हैं जो

खुद को बहुत ही बेबस महसूस करता है क्योंकिवो आनंद के लिए कुछ नहीं कर पा रहा है.

इस फिल्म ने तो बॉक्स ऑफिस पर धूम ही मचा दी थी. इसी फिल्म के लिए काका को कई

पुरस्कार भी मिले. आज भी इस फिल्म को देख कर आँख में आंसू न आये, ऐसा हो नहीं

सकता.

राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन ने एक और फिल्म साथ में की थी "नमक हराम" जो

१९७३ में आई थी. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने अपने आपको अच्छा साबित कर दिया था

और ये लगने लगा था कि अब कोई खन्ना के बाद सुपरस्टार बन सकता है तो वो अमिताभ

बच्चन ही हैं. इसी कारण से उनकी फिर कभी साथ में कोई फिल्म नहीं आई क्योंकि काका

को पता चल गया था कि उनका दौर अब धीरे धीरे कम हो रहा है और इस एंग्री यंग मैन का

प्रभाव बड़ रहा है.

राजेश खन्ना, गुरु दत्त, मीना कुमारी और गीता बाली को अपने आदर्श मानते थे. उन्होंने एक

बार एक साक्षात्कार में कहा था “मुझे दिलीप कुमार की दृढ़ता और इंटेंसिटी से, राज कपूर की

spontaneity से, देव आनंद की स्टाइल से और शम्मी कपूर की rhythm से प्रेरणा मिलती

है.”

- १९९१-२०१२ (1991-2012)

सन १९९१ में खन्ना ने बॉलीवुड को पीछे छोड़ते हुए राजनीति में अपना कदम रखा. राजेश

खन्ना नई दिल्ली के चुनाव श्रेत्र (constituency) के अंतर्गत सन १९९१ से १९९६ के बीच

संसद के सदस्य (Member of Parliament) रहे थे. वो १९९० से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

के एक्टिविस्ट रहे थे और राजीव गाँधी के अनुरोध पर १९८४ से कांग्रेस पार्टी का प्रचार भी

कर रहे थे. उन्होंने २०१२ के पंजाब के चुनाव का भी प्रचार किया था. १९९२ के बाद से उन्होंने

अधिकतर फिल्मों का प्रस्ताव ठुकरा दिया और कुल मिलकर सिर्फ १० फिल्में ही की, जिसमें

खुदाई (१९९४), सौतेला भाई (१९९६), आ अब लौट चलें (१९९९), प्यार ज़िन्दगी है (2001), वफ़ा

(२००८) आदि शामिल हैं.

उन्होंने इसी समय टेलीविजन में भी अपने हाथ आजमाए. २००१-२००२ में राजेश खन्ना ने

दो टी. वी. सीरियल में "अपने-पराए" और "इत्तेफाक" में मुख्य भूमिका निभाई थी. उन्होंने

२००७ में एक प्रतिभा की खोज के लिए शुरू किये गए सीरियल "स्टार से सुपरस्टार तक" का

भी प्रचार किया और एक करोड़ की सोने की ट्राफी भी दान की थी. नवम्बर २००८ में आया

उनका सीरियल "रघुकुल रीत सदा चली आई" काफी लोकप्रिय हुआ था और सितम्बर २००९

तक चला था. मई २०१२ में उन्होंने आखिरी बार छोटे-बड़े परदे पर काम किया था. हेवल्ल्स,

जो एक फेन बनाने की कंपनी है, ने खन्ना को अपने नए एड प्रचार के लिए अपना ब्रांड

आंबेसडर (ambassador) बनाया था.


राजेश खन्ना और संगीत:

संगीत, राजेश खन्ना की फिल्मों की जान रही है. उन्हें खुद भी संगीत में बहुत दिलचस्पी थी

जिसके कारण वो अपनी फिल्मों के गानों पर बहुत ध्यान देते थे. खन्ना को धुन की बहुत

अच्छी समझ थी. वो अपने हर गाने को सुनते थे और फिर उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी देते

थे.

काका के मशहूर गानों की गिनती तो कभी खत्म ही नहीं हो सकती है. कुछ बहुचर्चित राजेश

खन्ना के गाने:

- आराधना का 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू' आज भी नौजवानों की जुबां पर चढ़ा

है.

- कटी पतंग का 'ये जो मोहब्बत है, ये उनका है काम', दिल को छूने वाला गीत है. इसी

फिल्म का गीत 'ये शाम मस्तानी, मदहोश किये जाये ' भी बहुत प्यारा गाना है.

- मेरे जीवन साथी का 'ओ मेरे दिल का चैन', बड़ा ही रोमांटिक गाना.

- आनंद के 'कहीं दूर जब दिन ढल जाये' और 'मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने' भी

बड़े प्रचिलित गाने हैं.

- अमर प्रेम का 'कुछ तो लोग कहेंगे' न जाने कितने सालों से प्रेमियों की पसंद है.

- आपकी कसम का 'जय जय शिव शंकर' एक बहुत ही मौज मस्ती भरा गाना.

- अंदाज़ का 'ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना' भी एक मस्ती भरे मुड़ का गाना है.

- महबूबा का 'मेरे नैना सावन भादो' जुदाई की तड़प दिखने वाला गीत है.

- रोटी का 'गोरे रंग पे ना इतना गुमान कर' आपस की नोक-झोक के लिए सही गाना है.

ये तो कुछ गिने चुने गाने हैं, राजेश खन्ना के गाने तो इतने हैं की लिस्ट बढती रहेगी, बढती

रहेगी.

राजेश खन्ना की गायक किशोर कुमार और संगीत निर्देशक आर. डी. बरमन के साथ जोरदार

तिकड़ी बन गई थी.  राजेश खन्ना, किशोर कुमार और आर. डी. बरमन ने मिल कर कई

फिल्मों जैसे कटी पतंग, अमर प्रेम, मेरे जीवन साथी, शेह्ज़दा, अजनबी, आप की कसम, महा

चोर, कर्म, नमक हराम, फिर वो रात, आँचल, कुदरत, अगर तुम ना होते, हम दोनों, आवाज़,

अलग अलग, आदि को सुपरहिट गाने दिए थे.  कुल मिलाकर तीनों ने ३२ फिल्मों में साथ काम

किया था. आर. डी. बरमन ने खन्ना की ४० फिल्मों में संगीत बनाया और किशोर कुमार ने

उनके लिए ९१ फिल्मों में गीत गाए थे. इन आंकड़ो से ही पता लगाया जा सकता है कि इनकी

तिकड़ी कितनी मशहूर थी.

एक समय ऐसा आया था जब किशोर कुमार से लोगों ने किनारा कर दिया था और कोई भी

उन्हें गाने नहीं दे रहा था, तब खन्ना ने उनकी मदद की थी और अपनी फिल्म अलग अलग

के लिए उनसे गाने की इच्छा जाहिर की थी. किशोर दा इससे इतने प्रभावित हुए की उन्होंने

फिल्म में गाना तो गया पर उसकी कोई फीस नहीं ली. ऐसे ही जब आर. डी. बरमन (पंचम दा)

के गाने फिल्मों में अपनी छाप नहीं छोड़ पा रहे थे तो लोगों ने उन्हें काम देना बंद कर दिया

था. उस समय खन्ना, पंचन दा के साथ खड़े रहे और उन्हें फ़िल्में दिलवाई.

इन तीनों की दोस्ती सिर्फ फ़िल्मी सेट पर ही नहीं थी बल्कि उससे भी परे थी. असल

ज़िन्दगी में भी तीनों बहुत घनिष्ट मित्र थे. इसकी मिसाल खन्ना ने तब दी थी जब उन्होंने

किशोरे कुमार द्वारा निर्देशित "ममता की छाव में" को पूरी करने में लीना गांगुली और अमित

कुमार की मदद की थी. यह फिल्म पूरी होने से पहले ही किशोरे कुमार की मृत्यु हो गई थी.

उनकी मृत्यु के बाद भी आर. डी. बरमन और खन्ना ने "जय शिव शंकर" और "सौतेला भाई"

जैसी फिल्मों में साथ काम लिया था.

राजेश खन्ना ने लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल की मशहूर जोड़ी के साथ भी बहुत काम किया था.

उन्होंने साथ में १९६९ की "दो रास्ते" से लेकर १९८६ की "अमृत" तक बहुत ही सराहनीय काम

किया था. जिनमें से कुछ फिल्में थी-_ अनुरोध, छैला बाबु, चक्रव्यूह, फिफ्टी-फिफ्टी, महबूब

की मेहँदी, अमरदीप और रोटी. सिर्फ ये फिल्में ही नहीं इनके गाने भी सुपरहिट हुए थे.


राजेश खन्ना के फ़िल्मी किरदार:

भले ही खन्ना को "किंग ऑफ़ रोमांस" कहा जाता हो लेकिन उन्होंने अपने इतने सालों के

करियर में हमेशा कई तरह के भाव वाले रोल (emotions) निभाए हैं. फिर चाहे वो बाबु में

रिकशा खीचने वाले की दुखभरी दास्तान हो, या रेडरोज में एक शातिर का थ्रिलर हो, या

आवाम में हो राजनीति का खेल और या फिर बुन्दलबाज़ और जानवर में हो फंतासी (fantasy).

उन्होंने कई किस्म की फिल्में की, जैसे चक्रव्यूह और इत्तेफाक में सस्पेंस (suspense),

बावर्ची, हम-दोनों और मास्टरजी में कॉमेडी, अशांति में एक्शन, आँचल और अमृत में फॅमिली

ड्रामा, फिर वही रात और अंगारे में क्राइम आदि. खन्ना ने सामाजिक फिल्में भी की जैसे

अवतार, नया कदम, आखिर क्यूँ.

राजेश खन्ना ने हर तरह के किरदार निभाये थे, जैसे ‘पलकों की छाँव में’, में डाकिया, ‘कुदरत’

में एक वकील, ‘आज का एम.एल.ए राम अवतार’ में एक राजनेता, ‘आशा ज्योति’ में एक

युवा संगीतकार, ‘प्रेम बंधन’ में एक मछुआरा, ‘बंधन’ में किसान और ‘प्रेम कहानी’ में एक

देशभक्त.


खन्ना की प्रसिद्धी:

राजेश खन्ना के प्रति लोगों की परवानगी ऐसी चढी थी जिसे आज तक कोई नहीं छू पाया

है. खन्ना बॉलीवुड के वो बड़े सितारे थे, जिन्होंने आसमान की बुलंदियों को छुआ था. कहते हैं

अपने समय में खन्ना इतने प्रसिद्ध थे कि उनकी एक झलक के लिए हजारों की संख्या में

लोग उनके घर के बहार खड़े होते थे. लड़कियां तो उनकी इतनी दीवानी थी जिसकी कोई हद ही

नहीं थी. लड़कियां उन्हें अपने खून से लिखी चिट्ठियां भेजा करती थी. हमने तो यहाँ तक सुना

है की जब भी काका की गाड़ी सड़क पर निकलती थी लड़कियां गाड़ी को ही चूम लेती थीं और

पूरी गाड़ी लिपस्टिक के निशान से भर जाती थी. एक बार, काका की तबियत थोड़ी बिगड़ गई

थी और उन्हें बुखार हो गया था. तब, कुछ कॉलेज जाने वाली लड़कियों ने रात भर जागकर,

बारी बारी से राजेश खन्ना की तस्वीर पर ठन्डे पानी पट्टियाँ लगाई थीं.

लड़कियां उनपर अपनी जान छिड़कती थी और खन्ना की तस्वीर से ही शादी करती थी और

अपने खून से अपनी मांग भरती थी. उनके आने पर, उनके चाहने वाले पूरा रास्ता जाम करके

उनका नाम चिल्लाते थे और उन्हें छूने या उनके कपड़े का टुकड़ा पाने की कोशिश करते थे.

अमरप्रेम फिल्म की शूटिंग के दौरान राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर  को हावड़ा पुल के

नीचे एक नाव बैठे हुए फिल्माना था, पर फिर ये दृश्य फिल्म से हटा दिया गया. सबको डर

था कि अगर लोगों को पता चला कि उनके चहेते काका की फिल्म की शूटिंग चल रही है तो

सब उनकी एक झलक के लिए पुल आ जायेंगे. और एक साथ इतने सारे लोगों के भार को पुल

उठा नहीं पाया तो वो गिर जायेगा और बहुत मुसीबत हो जाएगी.

काका ने अपना सुपरस्टार वाला समय बहुत ही शान से जिया था. उन्हें पता था कि लोग

उनके कितने दीवाने है, इसलिए उनकी नाक हमेशा ऊँची ही रहती थी. कहीं न कहीं उन्हें अपने

सुपरस्टार होने का बहुत गुरूर था, जो दिखाई देता था.

राजेश खन्ना उस समय के एकलौते ऐसे अभिनेता थे जिनके पास अपनी खुद की वनिटी वाँन

थी. उनकी ये वाँन जर्मन कंपनी volkswagen की थी जिसका नाम काका ने ‘मेंदालियन’

(medallion) रखा था. इस वनिटी वाँन का नंबर है- MH 01 YA 2222. वो शोट के खत्म

होने के बाद, शोट डिसकस करने के लिए या शूटिंग के दौरान थक जाने पर इसी वाँन में आ

कर आराम करते थे. अगर कोई निर्देशक अपनी कहानी भी उन्हें सुनाने आता तो वो इसी के

अन्दर बैठ कर बात करते थे. काका को ये वाँन बहुत ही प्यारी थी.

राजेश खन्ना फैशन के मामले में भी किसी से पीछे नहीं थे. उन्ही के कारण सत्तर और अस्सी

के दशक में ‘गुरु कुरता’ और शर्ट के ऊपर बेल्ट बंधने का चलन शुरू हुआ था. काका सभी के

लिए आदर्श थे. उन्हीं के कारण न जाने कितनों को फिल्मों में आने की प्रेरणा मिली होगी.

मिमिक्री कलाकारों के तो खन्ना बहुत ही चहेते हैं. उनके अंदाज़ की लोग आज भी नक़ल करते

हैं.


परिवार और प्रेम सम्बन्ध:

१९६० के आखिर के सालों में राजेश खन्ना और उस समय की मशहूर फैशन डिजाइनर अंजू

महेन्द्रू में प्रेम सम्बन्ध थे. पर खन्ना के शादी के प्रस्ताव को अंजू ने ठुकरा दिया जिससे

उन्हें बहुत बड़ा सदमा लगा था. लेकिन फिर खन्ना ने खुद को संभाला और १९७२ में अंजू

महेन्द्रू से अपने सात साल के रिश्ते के टूट जाने के बाद, मार्च १९७३ में १६ साल की डिम्पल

कपाड़िया से ब्याह रचाया था. उनकी दो बेटियां हैं, ट्विंकल खन्ना और रिंकी खन्ना.

डिम्पल कपाड़िया के सामने शादी का प्रस्ताव रखने की भी अलग ही दिलचस्प कहानी थी.

एक बार  सभी छोटे-बड़े अभिनेता-अभिनेत्री किसी शो के लिए ज़ा रहे थे. उस समय खन्ना

ऊंचाई पर थे और डिम्पल अपनी पहली फिल्म बोबी की शूटिंग कर रहीं थीं. सभी लोग प्लेन

से ज़ा रहे थे. नै होने के कारण डिम्पल अकेले कोने में बैठी थी, तब बड़ी बड़ी हस्तियों को छोड़

कर खन्ना डिम्पल के पास आये और उनके पास बैठने की अनुमति मांगी. इस तरह दोनों की

पहली मुलाकात हुई. फिर मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया और दोनों अक्सर मिले रहे. फिर

एक रात यूँ ही अपने आशीर्वाद बंगले के सामने, समुद्र के किनारे टहलते टहलते खन्ना ने

डिम्पल के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया और डिम्पल ने भी हाँ कर दी.

सन १९८४ में खन्ना और डिम्पल अलग हो गए क्योंकिखन्ना फिल्मों में व्यस्त रहते थे और

डिम्पल भी फिल्मों में अपना करियर बनाना चाहती थी. उनके बीच तालमेल नहीं बैठ रहा

था, इसलिए वो अलग हो गए पर दोनों में डिवोर्स नहीं हुआ था. फिर खन्ना अपनी सहयोगी

कलाकार टीना मुनीम के साथ प्रेम सम्बन्ध में जुड़ गए लेकिन उनका रिश्ता भी ज्यादा नहीं

टिका क्योंकिटीना फ़िल्मी जगत छोड़ कर, अपनी आगे की पढ़ाई में जुट गई. इस बीच डिम्पल

और खन्ना की दूरियां कम होने लगी, उनमें आपसी समझ बदने लगी और एक दूसरे के प्रति

कड़वाहट भी मिटने लगी. कहा जाता है कि 2004 से राजेश खन्ना, अनीता अडवाणी के साथ

रह रहे थे. लेकिन उनकी बीमारी के चलते डिम्पल कुछ समय से उनके साथ ही थी.

दोनों की बड़ी बेटी, ट्विंकल खन्ना, भी सिनेमा जगत की अभिनेत्री रह चुकी हैं, जिन्होंने जान,

दिल तेरा दीवाना, जब प्यार किसी से होता है, बादशाह, जोरू का गुलाम आदि फिल्मों में काम

किया है. लेकिन अब वो घर सजावट के काम में लगी हैं. ट्विंकल ने अभिनेता अक्षय कुमार से

शादी की है और उनका एक बेटा भी है, आरव. रिंकी खन्ना, उनकी छोटी बेटी ने भी फिल्मों में

काम किया है और समीर सरन से शादी की है.

काका का बांद्रा के कार्टर रोड में स्थित "आशीर्वाद" बंगला पहले अभिनेता राजेंद्र कुमार

का था. इस बंगले का नाम उन्होंने अपनी बेटी के नाम पर "डिम्पल" रखा था. फिर उन्होंने

बांद्रा के ही पाली हिल में बंगला खरीद लिया और कार्टर रोड वाले बंगले को बेचने का सोचा.

तब फिल्म जगत में नए नए आये खन्ना ने ये बंगला राजेंद्र कुमार से खरीदा और उसका

नाम "आशीर्वाद" रखा क्योंकि उनका मानना था कि वो जो कुछ भी है वो अपने माता-पिता के

आशीर्वाद से हैं.

इस बंगले कि दिलचस्प बात ये है कि राजेंद्र कुमार के पहले ये घर खाली था. आस पास के

लोग इससे भूत बंगला कहते थे. पर राजेंद्र कुमार ने ये घर खरीदा और कामयाबी उनके कदम

चूमने लगी. और जब खन्ना ने ये घर राजेंद्र से खरीदा तब उन्होंने भी कामयाबी का नया

रस चखा.  और इसी घर ने काका की नाकामयाबी भी देखी थी. इसी बंगले में उन्होंने अपनी

आखिरी साँसे ले थी और यहीं से उनकी अन्तिम यात्रा निकली थी.


पुरस्कार और रेकॉर्ड्स:

राजेश खन्ना एक ऐसे कलाकार रहे हैं जिन्होंने आसमान की बुलंदियों को बड़ी आसानी से छुआ

है. आज तक कोई ये समझ नहीं पाया कि साधारण सी कद-काठी और रंग-रूप वाला इंसान

लाखों की दिल की धड़कन कैसे बन गया? राजेश खन्ना के नाम इतने सारे रिकॉर्ड हैं और

इतने सारे अवार्ड्स हैं कि इसकी तुलना किसी से नहीं कर सकते हैं.

उनकी पहली फिल्म "आखिरी ख़त" को १९६७ में भारत की ओर से ४०वे आस्कर अकेडमी

पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए भेजा गया था.

राजेश खन्ना को 1991 में 25 साल के छोटे से समयकाल में 101 सिंगल/ सोलो हीरो और

21, दो हीरो वाली फिल्में करने के लिए फिल्मफेयर स्पेशल पुरस्कार मिला था. उन्हें 1971

में सच्चा-झूठा, 1972 में आनंद और 1975 में अविष्कार के लिए, यानि की कुल 3 बार

सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था. और इसी पुरस्कार के लिए 14

बार उनका नामांकन हुआ था. उन्हें 1973 में स्पेशल अतिथि के लिए फिल्म अनुराग के लिए

फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था. फिर राजेश खन्ना को 2005 में फिल्मफेयर की तरफ से

लाइफटाइम अचिवमेंट पुरस्कार प्राप्त हुआ था. मतलब कि कुल मिलकर 6 बार फिल्मफेयर

पुरस्कार मिला था.

उनके खाते में 4 बार, बंगाल फिल्म जर्नालिस्ट असोसीऐसन पुरस्कार (Bengal Film

Journalist Association Awards) के तहत सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार भी हैं. 1972

में आनंद, 1973 में बावर्ची, 1974 में नमक हराम और 1987 में अमृत के लिए. इसी के

अंतर्गत उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए 25 बार नामांकित किया गया था जो कि अपने

आप में एक रिकॉर्ड है.

1982 में कुदरत फिल्म के लिए और 1985 में आज का एम.एल.ए राम अवतार फिल्म के लिए

ऑल इंडिया क्रिटिक्स असोसीऐसन (All India Critics Association) ने कोलकता में खन्ना

को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया था.

खन्ना को सन २००८ में मुंबई में दादा साहेब फाल्के के जन्मोत्सव पर फाल्के लेजेनदरी

गोल्डेन एक्टर अवार्ड (Phalke Legendary Golden Actor Award) भी प्राप्त हुआ है.

खन्ना ने 1966-2011 के अपने चालीस साल के करियर में 180 फिल्में की हैं, जिसमें से

163 फीचर फ़िल्में थी और 17 लघु कहानियाँ. उनकी इकलोती सोलो लीड हीरो वाली पंजाबी

फिल्म "तिल तिल दा लेखा" सन १९७९ में रिलीज़ हुई थी जो गोल्डन जुबली हिट रही थी. इसी

के लिए उन्हें पंजाब का राज्य सरकार पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था.

उनके शुरुआती करियर में यानी की सन १९६७-१९७५ के बीच उन्होंने ३५ गोल्डन जुबली हिट

फिल्में दी थी. फिर अपने करियर के मुश्किल दौर में (१९७६-१९७८) ३ गोल्डन जुबली हिट

फिल्में दी थी- छैला बाबु, अनुरोध और तिल तिल दा लेखा. उसके बाद सन १९७९-१९९१ तक

वोह फिर उभर के आये. अमिताभ बच्चन के साथ "सुपरहीरो" का टैग शेयर करने के बावजूद

उन्होंने ३५ से ज्यादा गोल्डन जुबली हिट फिल्में दी थी.

राजेश खन्ना की प्रसिद्धी को देख कर बी. बी. सी. ने उनके ऊपर "बॉम्बे सुपरस्टार" नामक

फिल्म बनाई थी. मुंबई विद्यापीठ के द्वारा छापी एक किताब में राजेश खन्ना पर "द करीजमा

ऑफ राजेश खन्ना!" (The Charisma of Rajesh Khanna!) नामक एक लेख भी छपा है.


काका की सेहत और मृत्यु:

कहते हैं जब 1976 के बाद से उनकी काफ़ी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप होने लगी तो

खन्ना अपने आप को संभल नहीं पाए. उन्हें आखिरी वक़्त तक ये मंजूर नहीं था कि अब वो

सुपरस्टार नहीं थे. उनके लिए इस सच को एक्सेप्ट करना बहुत मुश्किल था. अपनी फिल्मों

के इतने बुरे तरीके से पिट जाने से वो अकेले रहने लगे थे. वो दुनिया से काफ़ी अलग थलग हो

गए, जिसके चलते उनकी सेहत पर भी असर होने लगा था.

इस साल जून २०१२, में राजेश खन्ना की तबियत काफी बिगड़ रही थी. इसी कारण उन्हें २३

जून को लीलावती अस्पताल में भरती किया गया था. वहां इलाज़ होने के बाद उन्हें ४ जुलाई

को घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उनकी तबियत ख़राब होने की बात जब उनके चाहने

वालों को पता चली तो खन्ना के बंगले आशीर्वाद के सामने लोगों का जमखट लग गया था.

इसी के चलते लोगों को आश्वासन देने के लिए, खन्ना अपने दामाद अक्षय कुमार के साथ

अपने बंगले के बालकनी पर आये थे. वहां उन्होंने अपना हाथ हिला कर लोगों को अपने ठीक

होने का आश्वासन दिया, लेकिन उनकी हालत ख़राब थी, ये दिख रहा था. १४ जुलाई को उनको

फिर लीलावती में भरती कराया पर १७ जुलाई को वो फिर घर आ गए. और अगले ही दिन, १८

जुलाई, २०१२ को अपने बंगले में उनकी मृत्यु हो गई.

उनकी मृत्यु के वक़्त उनके पास उनका पूरा परिवार, उनकी पत्नी डिम्पल, दोनों बेटियाँ-

ट्विंकल और रिंकी, दामाद अक्षय और नाती आरव मौजूद थे. इन सबके अलाव उनके रिश्तेदार

और ख़ास मित्र भी उपस्थित थे. मौत को गले लगाने से पहले उनके आखिरी शब्द थे "समय

हो गया है. पैक-अप!". १९ जुलाई, २०१२ को सुबह ११ बजे, उनकी अंतिम यात्रा निकली. उन्हें

आखिरी बार देखने के लिए लोगों का हुजूम निकल पड़ा था.

उन्होंने अपने परिवार, दोस्त-रिश्तेदार और चाहने वालों के लिए एक सन्देश रिकॉर्ड किया था

जो उनके चौथे के दिन चला था. बांद्रा के होटल ताज लैंडसन में काका का चौथा रखा गया

था. रेकॉर्डेड सन्देश में उन्होंने सबको सलाम किया था और उन्हें इतना प्यार देने के लिए

धन्यवाद दिया था. उनके चौथे पर सिनेमा जगत की कई नामी-गिरामी हस्तियाँ आईं थीं. उनमें

अमिताभ बच्हन और उनका परिवार, शाहरुख़ खान, आमिर खान और उनकी पत्नी किरन राव,

सलमान खान, ऋषि कपूर, प्रेम चोपडा, साजिद खान इत्यादि.

यहाँ तक की ट्विट्टर और फेसबूक पर भी सब राजेश खन्ना को ही याद कर रहे थे. हर किसी

ने किसी न किसी जरिये से उन्हें श्रधांजलि दी.

उन्ही की एक फिल्म का dialoug है “ज़िन्दगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिए” और उन्होंने

अपनी ज़िन्दगी का उदाहरण देते हुए इस वाक्य को १०० प्रतिशत सही साबित किया है.

आखिर में, मै इस बात पर खत्म करना चाहती हूँ भले ही आज "आनंद" हमारे बीच नहीं है, पर

जैसा कहा गया है, "आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं".

राजेश खन्ना सुपरस्टार थे और हमेशा रहेंगे, इसलिए नहीं की उनकी बहुत फ़िल्में हिट या

फ्लॉप थी पर इसलिए क्योंकिजो प्रभाव वो देश-दुनिया पर दालते थे वो काबिले तारीफ़ था.

आज भी लोग उन्हें उनके अनोखे अंदाज़ के लिए उन्हें याद किया करते हैं और आगे भी हमेशा

करते रहेंगे. हमारी फिल्म जगत को उन्होंने जो योगदान दिया है उसे शब्दों में बयां करना

नामुमकिन है, वो कभी भुलाया नहीं ज़ा सकता है. वो हमारे दिल में हमेश अजर-अमर रहेंगे.

Sunday, December 16, 2012

जन्माष्टमी : पर्व या व्यवसाय

यूँ  तो कहने  के  लिए  कृष्ण-कन्हैया  का  जन्म  मथुरा  में  हुआ, उनकी  बाल  लीलाएँ गोकुल  में  हुई, रास-लीला  वृन्दावन  में  और  अंत  में  पूरे  गोकुल  वासियों  को  लेकर  बसे  द्वारका  में. तो  आखिर  महाराष्ट्र  में  मटकी  फोड़ने  की  प्रथा  कैसे?

विष्णु  के  आठवें   अवतार  श्री  कृष्ण  के  जन्मदिवस  को  जन्माष्टमी  पर्व  के  नाम  से  जाना  जाता  है. इस  त्यौहार  के  और  भी  कई  नाम  हैं  जैसे  कृष्णाष्टमी, सातम  आठम, गोकुलाष्टमी, अष्टमी  रोहिणी, श्रीकृष्ण  जयंती, श्री  जयंती  और  कृष्ण  जन्माष्टमी. हिन्दू  कैलेंडर  के  मुताबिक  भाद्र महीने  (August-September) की  अमावस्या  के  आठवें दिन  ये  पर्व  धूम-धाम  से  देश  के  अलग  अलग  हिस्सों  में  मनाया  जाता  है.

पर  वो  तीन  राज्य  जो  गोकुलाष्टमी  के  लिए  बहुत  प्रसिद्ध  हैं, वो  हैं  उत्तर  प्रदेश, गुजरात  और  महाराष्ट्र. उत्तर  प्रदेश  में  प्रसिद्ध  होना  लाजमी  है, आखिर  वहीँ  के  शहरों  में  उनका  जन्म  हुआ, बचपन  बिता, राधारानी  से  प्रेम  हुआ, तरह-तरह  की  लीलाएँ  की, अपने  क्रूर  मामा  कंस  का  वध  किया, यहाँ  तक  की  माखन, दूध  से  भरी  मटकियाँ  भी  वहीँ  की  गलियों  में  फोड़ी. गुजरात  के  द्वारका  शहर  में  भी  ये  पर्व  प्रचिलित  है  क्योंकि  यहाँ  भी  कान्हा  जी  का  वास  था.

फिर, दूध, माखन, दही  से  भरी  मटकी  आखिर  महाराष्ट्र  के  मुंबई  और  पुणे  शहर में  कैसे  पहुंची? क्यों छोटे -बड़े  “गोविंदा” अपनी  जान  जोखिम में  डाल  कर  मानव  pyramid बनाते हुए  ये  त्यौहार  मानते  हैं?.

ये  प्रथा  अठारहवीं सदी  में  उस  समय  कहे  जानेवाले  बम्बई  के  गिरगाँव इलाके  में  “पठारे  प्रभु”  कम्युनिटी  ने  शुरू  की  थी. ये  बहुत  ही  समृद्ध  कम्युनिटी  थी  जिनके  नीचे कई  किसान  काम  किया  करते  थे . ये  किसान  “कुनबी”  कम्युनिटी  के थे. पठारे प्रभु,  श्री कृष्ण के  भक्त  थे  इसीलिए जन्माष्टमी  के  दिन  दोनों  कम्युनिटी  मिलकर मानव  pyramid बनाते  थे  और  ऊंचाई  पर  टंगी  दूध,  माखन  से   भरी   मिट्टी  से बनी  मटकी  को तोड़ते थे.  ये  pyramid  बनाते  वक़्त  कोई  ऊँच-नीच  नहीं  देखी जाती  थी.  हर  कोई  पूरी  श्रधा से  बिना  मन  में  लालच  लिए  ये  त्यौहार  मनाते  थे. और  साथ  ही  टाँगे   पर  श्री कृष्ण  की  मूर्ति  बिठा  कर  और  कृष्ण  की  झाकियां लगा  कर  पूरे  इलाके  में  घुमाते थे.  

ये  प्रथा 1950s से  चलती  रही  फिर  गिरगाँव, गाँव  से  शहर  बन  गया  और  बड़ी  मीनें  खत्म  हो  गईं.  फिर  वहां  के  निवासी  मुंबई  शहर  के  अलग  अलग  हिस्सों  में  बस  गए  लेकिन  जहाँ  बसे  वहीँ  ये  प्रथा  शुरू  करा  दी.  पर  अब  ये  पर्व  मनाने  में  फ़र्क  आया  है. अब  टांगो  में  झांकियों  की  जगह  ट्रक  भर  कर  गोविंदा  घूमते  हैं. 

और  धीरे  धीरे  ये  पर्व  अब  एक  स्पर्धा  के  रूप  में  देखा  जाने  लगा  है.  ये  पैसे  कमाने  का  एक  ज़रिया  बन  गया  है.  और  इस  बदलाव  का  एक  मुख्य  कारण  है  बड़े  व्यवसाइयों  और  राजनेताओं  द्वारा  मटकी  तोड़ने  पर  लाखों  का  इनाम  देना.  इसके  चलते  ये  बाल-गोपाल  और  गोविंदा  कई  महीनों  से  इसकी तयारी  में  जुट  जाते  हैं.  ज्यादा  से  ज्यादा  मटकी  तोड़ने  और  ज्यादा  कमाने  की  चाह  में कभी  कभी मानवता  कहीं  खो  जाती  है  और  हर  साल  इस  पर्व  के  दौरान  2-4 लोगों  की  मौत की खबर  सुनने  में  आ  ही  जाती  है.  राजनेता  अपना  उल्लू साधने  में  कई  मासूमों  की  जान  जोखिम  में डालते  हैं.  आज  ये  स्पर्धा  इस  कदर  बढ  गई  है  कि  सिर्फ  मुंबई  में  लगभग  4000  मटकियों  को तोड़ने  के  लिए  करीब  2000 गोविंदा  मंडलियाँ  हैं.  पहले  सिर्फ  पुरुष  ही इसमें  हिस्सा लेते  थे,  लेकिन  अब  महिलाएं  और  नेत्र-हीन भी इस "व्यवसाय" में कूद पड़े हैं.
 
इससे  ये  तो  पता  चलता  है  कि  स्पर्धा  काफी कड़ी  है  लेकिन  एक  सवाल जो  उठता  है वो  ये  कि  इस हर्सौल्लास के त्यौहार  को  एक  त्यौहार  के  रूप  में  ही देखना  चाहिए  या  एक स्पर्धा  और व्यावसायिक  रूप  में  देखना  चाहिए?

Sunday, October 28, 2012

Mumbaiya Politics



I believe that three things which drive Mumbai are its Nightlife, which I think is vanishing now; thanks to ACP Vasant Dhoble, Crime, and Politics.
In Rohit Shetty’s film Singham, there is a dialogue “Yahan politics main system ho ya na ho, lekin system main politics jaroor hota hai”. We can refer Yahan as Mumbai (in fact India, but let’s narrow it down to Mumbai). 
So, Mumbai main, politics main system ho ya na ho, lekin system main politics jaroor hota hai

Before Independence:
Let us start with an era when there was British rule in India. Bombay and Politics are intertwined since 1885. The first session of the National Congress Party was held in Bombay from 28–31 December 1885. During the first fifty years, it held six sessions of National Congress Party. Later during the 20th century it became a strong base for the Indian independence movement.

After Independence:
After Independence, in 1960s Bombay saw the rise of regional parties. On 19 June 1966, Shiv Sena party was formed which headed a campaign to expel South Indian and North Indians migrants forcefully. From Independence until the early 1980s, the Congress had dominated the politics of Bombay, but in 1985 Shiv Sena won the Bombay municipal corporation elections.

Different parties in Bombay/Mumbai:
To remove the Congress in the Maharashtra Legislative Assembly elections, the Bharatiya Janata Party (BJP), a major national political party, in 1989, formed an alliance with the Shiv Sena. In 1999, the Nationalist Congress Party (NCP) separated from the Congress, but later allied with the Congress, to form a joint venture known as the Democratic Front.  Currently, other parties such as Maharashtra Navnirman Sena (MNS), Samajwadi Party (SP), Bahujan Samaj Party (BSP) and several independent candidates also contest elections in the city.
Parties those are very prominent in Mumbai are-
  1. Indian National Congress: It is a major political party in founded in Bombay in 1885. The party is currently the chief member of the ruling United Progressive Alliance coalition headed by Sonia Gandhi.
  2. Shiv Sena (SS): It is aright-wing Hindu party, formed on 19 June 1966 by Balasaheb Thackeray.
  3. Nationalist Congress Party (NCP): On 25th May 1999, Sharad Pawar, Shri P. A. Sangma and Shri Tariq Anwar and other hundreds of their political supporters decided to form this new Political Party. Sharad Pawar was elected President.
  4. Maharashtra Navnirman Sena (MNS): Raj Thackeray left the Shiv Sena in December 2005 and formed Maharashtra Navnirman Sena in March 2006. He is a nephew of Bal Thackeray. Like his uncle, Raj Thackeray also headed a campaign to expel North Indian migrants by force.
In the Indian national elections held every five years, Mumbai is represented by six parliamentary constituencies: Mumbai North, Mumbai North West, Mumbai North East, Mumbai North Central, Mumbai South Central, and Mumbai South. A Member of Parliament (MP) to the Lok Sabha, is elected from each of the parliamentary constituencies.

In the Maharashtra state assembly elections which are held every five years, Mumbai is represented by 36 assembly constituencies. A Member of the Legislative Assembly (MLA) to the Maharashtra Vidhan Sabha, is elected from each of the assembly constituencies.

Along with this, elections are also held every five years to elect corporators in the Brihanmumbai Municipal Corporation (BMC). The Corporation comprises 227 directly elected Councillors representing the 24 municipal wards, five nominated Councillors having special knowledge or experience in municipal administration, and a Mayor. The tenure of the Mayor, Deputy Mayor, and Municipal Commissioner is two and a half years.

Since there are many parties who wants to rule on Mumbai, there are always some or the other disputes. One party having rally for some reason then other one organising a rally for other. The only thing parties believe in is how to manipulate common person and create vote bank. It is said that Mumbai is a favorite place for terrorists and attackers. Mumbai is the financial capital of India. The politics in Mumbai has a great influence on the politics at the national level.

If financial capital is not in a good state, then obvious it will affect the whole country. But it is spirit of Mumbaikars who runs it. (I sometime doubts, it’s a spirit of Mumbaikar or the majboori.) Unfortunately there is politics everywhere, not in terms of political parties only but in a way Mumbai works, which corrupts the system. Hence whenever we hear of word ‘Politics’ most of us make faces and say ye toh gutter hai, saaf karne jayenge toh khud ke haath gande honge.

Saturday, September 29, 2012

ETAWAH: The Land of Talents



Etawah, my native place, is a city in the state Uttar Pradesh near Yamuna River. It is a part of a Kanpur Division. Also Etawah is a place of sangam between Yamuna and Chambal.  If go in the history of the city, it was an important center for the Revolt of 1857.



Etawah - Constituency map Uttar Pradesh


Chambal ki Gattis are close to Etawah city, hence it is a notorious city even today. But today I, Anusha Pathak, want all of you to know that my native in not that bad as everyone thinks. Etawah is a land of talents too and here I am presenting few amazing talents of Etawah people.
1.      Ustad Imdad Khan (1848–1920), Instrumental Classical Musician: Even though his father Ustad Sahabdab Khan was the founder of Etawah Gharana, which comes from the most ancient school of music, the Gwalior Gharana, Ustad Imdad Khan was the one who developed the instruments, and created an innovative instrumental style that became characteristic of the Etawah gharana. The gharana is also called as Imdadkhani Gharana.

Ustad Imdad Khan was born in Agra, but later shifted to Etawah. He was taught by his father Ustad Sahabdab Khan and the legendary beenkar Bande Ali Khan. He had served to kings of Mysore and Indore. He also played for Queen Victoria in Delhi.

In the 19th century, Senia style was dominating in the instrumental classical music of Northern India. But, Ustad Imdad Khan introduced the element of Khayal gayaki into the alap of the first time. All gayaki ornamentations were implemented and systematically developed into the techniques for this newly developed style for playing sitar.

Ustad Imdad Khan was the first Sitar player to come out with a recording.


2.      Devesh Singh Chauhan (1980), Hockey Player of India: Devesh Chauhan has born on November 12, 1980 in Etawah. He is a Hockey goalkeeper from India. In early 2000, Devesh Chauhan made his international debut for the Men’s National Team. He represented India twice at the Olympics in 2000 (Sydney Australia) and in 2004 (Athens, Greece) where India finished in seventh place on both the occasions.

In the year 2001, Champions Challenge for Men was the inaugural tournament of Champions Challenge which held in Kuala Lumpur, Malaysia. Devesh Chauhan was the goal keeper of Indian Hockey team at that time. India defeated South Africa by 2-1 in the final to win the competition.


3.      Gopaldas Saxena ‘Neeraj’ (1924), Poet and Song Writer: E bhai zara dekh ke chalo song from Mera Naam Joker, would always remind you of Raj Kapoor and Manna Day. But Gopaldas Saxena ‘Neeraj’ (or popularly known as Neeraj as it is his pen name) was the one who wrote the song. Not only this but many songs like O meri Sharmili from Sharmili, Phulon ke rang se, dil ki kalam se from Prem Pujari, both sung by Shri Kishore Kumar. Rangeela re from Prem Pujari sung by Lata Mangeshkarji, Mera man tera pyasaa from Gambler sung by Mohammed Rafi and many more.

‘Neeraj’ji is among the best known poets and authors in Hindi literature. He is also famous poet of Hindi Kavi Sammelan. He has many collections i.e., “Neeraj ki Paati”, “Baadlon se Salaaam Leta Hoon”, “Geet jo Gaye Nahi” etc.

He was born on January 4, 1924 in the small village Ekdil of Etawah. His style is easy to understand but is compared with high quality Hindi literature.
Besides writing he was the Professor of Hindi Literature in Aligarh.

In the year 2007, he was awarded Padma Bhushan. Recently in the March of this year 2012, he recited some of his works at Annual Inter-College Cultural festival, Spoculit of Dr. Ram Manohar Lohiya National Law University, Lucknow. Nowadays he works as the Chancellor of Mangalayatan University, Aligarh.


4.      Mulayam Singh Yadav (1939), Ex-Chief Minister of Uttar Pradesh: Mulayan Singh Yadav is an Indian politician, head of Samajwadi Party (SP) from Uttar Pradesh. He was born on November 22, 1939 in the village Saifai of Etawah. He did his education from different colleges of Uttar Pradesh like K. K College, Etawah, A. K. College, Shikohabad and B. R. College, Agra University.

He was the Chief Minister of Uttar Pradesh thrice from 1989-1991, 1993-1995 and 2003-2007. He also served as Minister of Defence (1996-1998) in the United Front government.  His supporters call him Netajee and Dhartiputra. Mulayam Singh is a dedicated follower of Indian socialist leaders like Raj Narain and Ram Manohar Lohia.

Now his son Akhilesh Yadav (1973), who was also born in Saifai village, is Chief Minister of Uttar Pradesh. He took his primary education from Saint Mary School, Etawah.


5.      K. Asif (1922-1971), Film Director: Asif Karim was born on June 14, 1922 in Etawah. He was a film director, film producer and screenwriter. He is most famous for his work for the epic Hindi movie Mughal-e-Azam (1960).
Asif Karim went to Bombay to his brother-in-law Nazir Ahmed Khan and later took the name K. Asif. His directorial debut was Phool (1945), with a star cast of Prithviraj Kapoor, Durga Khote and Suraiya, which did well on box-office. Later he came up with the Mughal-e-Azam in 1960 with Dilip Kumar and Madhubala, which bagged him the status of legend despite his very few work.

The other film he made was Hulchul in 1951. While shooting on another film Love and God, K. Asif died on March 9, 1971 at the age of 48.


Along with all these eminent personalities and specialties of Etawah, former Indian President, late Dr. Zakir Hussain (February 8, 1897) pursued his school education in H.M.S Islamia Inter College, Etawah which is an epitome of unity and good relations between Hindus and Muslims. 


So from all this we can see that Etawah, my native place, a small city of Uttar Pradesh, India, has so much of talent within itself. Etawah has given many prominent personalities to India in different fields like Music, Sports, Literature, Politics, and Films etc.
Hence, I can say even if it is notorious place, thanks to Chambal ke Daakus, it has given me many more reasons to say that I am proud of my native place. I am proud of Etawah.